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Showing posts from September, 2014

खाली दिमाग का घंटाघर!

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यूँ ही राह चलते क्या तलाशते रहते हो जब किसी से यूँ ही नज़रें मिल जाती हैं...किसी को तो ढूंढते हो. वो क्या है जो आँखों के सामने रह रह के चमक उठता है. आखिर क्यूँ भीड़ में अनगिन लोगों के होते हुए, किसी एक पर नज़र ठहरती है. वो एक सेकंड के हजारवें हिस्से में किसी की आँखों में क्या नज़र आता है...पहचान, है न? एक बहुत पुरानी पहचान. किसी को देख कर न लगे कि पहली बार देखा हो. जैसे कि इस खाली सड़क पर, खूबसूरत मौसम में अकेले चलते हुए तुम्हें उसे एक पल को देखना था...इतना भर ही रिश्ता था और इतने भर में ही पूरा हो गया. रिश्तों की मियाद कितनी होती है? कितना वक़्त होता है किसी की जिंदगी में पहली प्राथमिकता होने का...आप कभी भी ताउम्र किसी की प्राथमिकता नहीं बन सकते, और चीज़ें आएँगी, और लोग आयेंगे, और शहर मिलेंगे, बिसरेंगे, छूटेंगे...कितना बाँधोगे मुट्ठी में ये अहसास कि तुम्हारे इर्द गिर्द किसी की जिंदगी घूमती है. कुछ लोग आपके होते हैं...क्या होते हैं मालूम नहीं. वो भी आपसे पूछेंगे कि उनका आपसे रिश्ता क्या है तो आप कभी बता नहीं पायेंगे, किसी एक रिश्ते में बाँध नहीं पाएंगे. प्यार कभी कभी ऐसा अमूर्त ह

वो छोटी सी वजह हो मेरे जीने की...

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कुछ जवाबों का हमें ता उम्र इंतज़ार रहता है...खास तौर से उन जवाबों का जिनके सवाल हमने कभी पूछे नहीं, पर सवाल मौजूद जरूर थे...और बड़ी बेचारगी से अपने पूछे जाने की अर्जी लिए घूमते थे...और हम उससे भी ज्यादा बेदर्द होकर उनकी अर्जियों की तरफ़ देखते तक नहीं थे... जिसे नफरत तोड़ नहीं सकती...उपेक्षा तोड़ देती है, नफरत में एक अजीब सा सुकून है, कहीं बहुत गहरे जुड़े होने का अहसास है, नफरत में लगभग प्यार जितना ही अपनापन होता है, बस देखने वाले के नज़रिए का फर्क होता है... कुछ ऐसे जख्म होते हैं जिनका दर्द जिंदगी का हिस्सा बन जाता है...बेहद नुकीला, हर वक्त चुभता हुआ, ये दर्द जीने का अंदाज ही बदल देता है...एक दिन अचानक से ये दर्द ख़त्म हो जाए तो हम शायद सोचेंगे कि हम जो हैं उसमें इस दर्द का कितना बड़ा हिस्सा है...जिन रास्तों पर चल के हम आज किसी भी मोड़ पर रुके हैं, उसमें कितना कुछ इस दर्द के कारण है...इस दर्द के ठहराव के कारण कितने लोग आगे बढ़ गए...हमारी रफ़्तार से साथ बस वो चले जो हमारे अपने थे...इस दर्द में शरीक नहीं...पर उस राह के हमसफ़र जिसे इस दर्द ने हमारे लिए चुना था। मर जाने के लिए एक वजह ह

अनजान दो लोग

सवालों का बरछत्ता

 मैं हवा में गुम होती जा रही हूँ, उसे नहीं दिखता...उसके सामने मेरी आँखों  का रंग फीका पड़ता जाता है, उसे नहीं दिखता...मैं छूटती जा रही हूँ कहीं, उसे नहीं दिखता... --- मैं गुज़रती हूँ हर घड़ी किसी अग्निपरीक्षा से...मेरा मन ही मुझे खाक करता जाता है। यूँ हार मानने की आदत  तो कभी नहीं रही। कैसी थकान है, सब कुछ हार जाने जैसी...कुरुक्षेत्र में कुन्ती के विलाप जैसी...न कह पाने की विवशता...न खुद को बदल पाने का हौसला, जिन्दगी आखिर किस शय का नाम है? कर्ण को मिले शाप जैसी, ऐन वक्त पर भूले हुये ब्रम्हास्त्र जैसी...क्या खो गया है आखिर कि तलाश में इतना भटक रही हूँ...क्या चाहिये आखिर? ये उम्र तो सवाल पूछने की नहीं रही...मेरे पास कुछ तो जवाब होने चाहिये जिन्दगी के...धोखा सा लगता है...जैसे तीर धँसा हो कोई...आखिर  जिये जाने का सबब कुछ तो हो! --- क्या चाहिये होता है खुश रहने के लिये? कौन सा बैंक होता है जहाँ सारी खुशियों का डिपॉजिट होता है? मेरे अकाउंट में कुछ लोग पेन्डिंग पड़े हैं। उनका क्या करूँ समझ नहीं आता ...अरसा पहले उनके बिना जिन्दगी अधूरी थी...अरसा बाद, उनके बिना मैं अधूरी हूँ...किसी खाके

जाने का कोई सही वक्त नहीं होता

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आने का वक्त होता है। होना भी चाहिये। हिरोईन जब उम्मीदों से क्षितिज को देख रही हो...या कि छज्जे से एकदम गिरने वाली हो...या कि म्युजिक डायरेक्टर ने बड़ी मेहनत से आपका इन्ट्रो पीस लिखा है...तमीज कहती है कि आपको ठीक उसी वक्त आना चाहिये म्युजिक फेड इन हो रहा हो...जिन्दगी में कुछ पुण्य किये हों तो हो सकता है आप जब क्लास में एन्ट्री मारें तो गुरुदत्त खुद मौजूद हों और जानलेवा अंदाज में कहें...'जब हम रुकें तो साथ रुके शाम-ए-बेकसी, जब तुम रुको, बहार रुके, चाँदनी भी'...सिग्नेचर ट्यून बजे...और आपको इससे क्या मतलब है कि किसी का दिल टुकड़े टुकड़े हुआ जाता है...आने का वक्त होता है...सही... मगर जाने का कोई सही वक्त नहीं होता। कभी कभी आप दुनिया को बस इक आखिरी प्रेमपत्र लिख कर विदा कह देना चाहते हैं। बस। कोई गुडबाय नहीं। यूं कि आई तो एनीवे आलवेज हेट गुडबाइज...ना ना गुड बौय्ज नहीं कि कहाँ मिलते है वैसे भी...मिलिट्री युनिफौर्म में ड्रेस्ड छोरे कि देख कर दिल डोला डोला जाये और ठहरने की जिद पकड़ ले। भूरी आँखें...हीरो हौंडा करिज्मा...उफ़्फ टाईप्स। बहरहाल...सुबह के छह बजे नींद खुल जाये, आसमान

आखिरी मुलाकात

कुछ गीत ऐसे होते हैं कि सुनकर जैसे दिल में कोई हूक सी उठने लगती रहती है। बरसों पुराने कुछ बिछडे लोग याद आने लगते हैं, कुछ जख्म फ़िर से हरे हो जाते हैं। कुछ ऐसा ही है बाज़ार का ये गाना "देख लो आज हमको जी भर के"। हालात, वक्त और बिछड़ने का अंदाज़ जुदा होने के बावजूद सुनते ही कोई पहचानी गली याद आ जाती है, गीली आँखें याद आती हैं, और एक शहर जैसे जेहन में साँसे लेने लगता है फ़िर से। इश्क होता ही ऐसा है, गुज़र कर भी नहीं गुज़रता, वहीँ खड़ा रहता है। जब कोई ऐसा गीत, कोई ग़ज़ल पढने को मिलती है तो जैसे एक पल में मन वहीँ पहुँच जाता है। जहाँ जाना तो था पर लौट कर आना नहीं था। वो आखिरी कुछ लम्हे जब वक्त को रोक लेने कि ख्वाहिश होती है, किसी को आखिरी लम्हे तक ख़ुद से दूर जाते देखना, अपनी मजबूरियां जानते हुए, ये जानते हुए कि वो हँसते खिलखिलाते पल अब कभी नहीं आयेंगे। वो आखरी मुलाकात...कुछ ऐसी बातें जो कही नहीं जा सकीं, एक खामोशी, एक अचानक से आई हुयी दूरी...और वही कम्बक्त वक्त को रोक लेने कि ख्वाहिश। पूजा 

मैं और तुम

मेरे तुम्हारे बीच उग आया है कंटीला मौन का जंगल जाने कब खो गयीं शब्दों की राहें खिलखिलाहटों की पगडंडियाँ ऊपर नज़र आता है स्याह अँधेरा नहीं दिखता है चाँद नहीं दिखती तारों सी तुम्हारी आँखें काँटों में उलझ जाता है तुम्हारा स्पर्श ग़लतफ़हमी की बेल लिपट जाती है पैरों से और मैं नहीं जा पाती तुम्हारे करीब बहुत तेज़ होता जाता है झींगुरों का शोर मैं नहीं सुन पाती तुम्हारी धड़कन पैरों में लोटते हैं यादों के सर्प काटने को तत्पर शायद मेरी मृत्यु पर ही निकले तुम्हारे गले से एक चीख और तुम पा जाओ शब्द और जीवन

दिल्ली तेरी गलियों का...

ये तारीखें वही रहती हैं साल दर साल वही हम और तुम भी... बदल जाती है तो बस जिंदगी की रफ़्तार... खो जाती है वो फुर्सत वाली शामें और वो अलसाई  सड़कें सर्द रातों में हाथ पकड़ कर घूमना... खो जाते हैं हम और तुम अनजाने शहर में अजनबी लोगों के बीच... रह जाती है बस एक याद वाली पगडण्डी एक आधा बांटा हुआ चाँद और अलाव के इर्द गिर्द गाये हुए गीतों के कतरे... छः मंजिल सीढियों पर रेस लगाना रात के teen बजे पराठे खाना और चिल्लड़ गिन कर झगड़ना कॉफी  खरीदने के बारे में... कोहरे से तुम्हें आते हुए देखना और फ़िर गुम हो जाना उसी कोहरे में हम दोनों का... आज उन्ही तारीखों में मैं हूँ, तुम भी हो...जिंदगी भी है अगर कुछ खो गया है तो बस वो शहर ...जहाँ हमें मुहब्बत हुयी थी दिल्ली, तेरी गलियों का वो इश्क याद आता है...

आइस क्यूब्स

ये झूठ है कि किसी से बिछड़ता है कोई हम बस, मर जाते हैं --------------------------- एयरटेल कहता है हमारी दुनिया में आप कभी अपनों से कभी जुदा नहीं होते ऐसा वादा खुदा क्यूँ नहीं करता कभी? ---------------------- कहीं से आती कोई हवाएं नहीं बता पाती हैं कि तुम्हारे काँधे से कैसी खुशबू आती है? -------------------- किसी भी पहर तुम्हारी आवाज़ नहीं भर सकती है  मुझे अपनी बांहों में!  ------------------------ मैं वाकई नहीं सोचती  लिप बाम लगाते हुए कि तुम्हारे होटों का स्वाद कैसा है! ---------------------------- मुझे कभी मत बताना कितनी आइस क्यूब डालते हो तुम अपनी विस्की में ----------------------------- कच्ची डाली से मत तोड़ा करो मेरी नींदें इनपर ख्वाब का फूल नहीं खिलता फिर ----------------------------- बातों का कैसे ऐतबार कर लूं तुम न कहते हो मुझसे झूठ झूठ  'आई लव यू'. --------------------------- सच कहती हैं सिर्फ उँगलियाँ जो तुम्हारा फ़ोन कॉल पिक करते हुए तुम्हें छूना चाहती हैं...  ----------------------- क

जैसे कोई किनारा देता हो सहारा...

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तुमसे जितना झगड़ती हूँ प्यार उतना ही बढ़ता जाता है... रोती हूँ तो सपने धुल के नये से हो जाते हैं.. कुछ और चमकीले... तुम्हारे साथ हँसती हूँ तो उन सपनों में इन्द्रधनुषी रँग भर जाते हैं... तुम्हें हँसता देखती हूँ तो उनमें जान आ जाती है... हम तीनों मिल कर जी उठते हैं फिर से... तुम.. मैं और हमारे सपने...! तुम्हारी मुस्कुराहट को पेंट करने का दिल करता है कभी कभी... काँच सी पारदर्शी तुम्हारी आँखें... उतना चमकदार रँग बना ही नहीं जो उन्हें कैनवस पे उतार सके... कभी कभी सोचती हूँ तुम्हारी रूह को एक काला टीका लगा दूँ... कहाँ बची हैं अब इतनी पाकीज़ा रूहें धरती पर... कहाँ रह गये हैं इतने साफ़ दिल इंसान... मैं बूढ़ी होना चाहती हूँ तुम्हारे साथ... तुम्हें देखते हुए... तुमसे झगड़ते हुए... तुम्हें प्यार करते हुए.... उम्र के उस पड़ाव पर जब घुटनों में दर्द रहा करेगा... तुम्हारे गले में बाहें डाल मैं थिरकना चाहती हूँ तुम्हारी धड़कनों की सिम्फनी पे... मैं उड़ना चाहती हूँ तुम्हारे साथ तुम्हारा हाथ पकड़ के... तब जब ये दुनिया वाले शायद हमें शक की निगाहों से ना देखें... मैं पूरी दुनिया घूमना चाहती हूँ तुम्हारे साथ... व

उसने लिखा फरेब तो मैंने वफा लिखा

उसने लिखा फरेब तो मैंने वफा लिखा पूरे सफे पे एक नहीं, सौ दफा लिखा मेरे कसूर का पता खुद ही मुझे नहीं उसने ही बार बार कलम से खफा लिखा ... मैंने भी रंज सारा झटके में रख दिया बरसों की मोहब्बत का है ये तोहफा लिखा उसने लिखा नुकसान के रिश्ते का सब सबब रिश्ते के इस हिसाब में मैंने नफा लिखा रखी नहीं कसर कुछ पर वो नहीं माना फिर मैंने भी आखिर में सब कुछ रफा लिखा...