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Showing posts from 2014

विस्मृति का विलास सबके जीवन में नहीं लिखा होता प्रिये

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किसी शहर में भूल जाना भी याद करना जितना आसान होगा. डायरी में लिख दिया अमुक का बर्थडे फलां फलां डेट को है. उस दिन याद से उसे मुबारकबाद कह देनी है नहीं तो साला बर्थडे पर बुलाएगा नहीं और खामखा एक केक का नुकसान हो जाएगा. मेरा गरीब पेट ऐसे कुछ ऐय्याशियों के भरोसे जीता है. उत्सव के ये कुछ दिन छिन गए तो कसम से एक दिन ओल्ड मौंक में जहर मिला कर पी जायेंगे. वैसी ही एक दिन लिख देना है डायरी में कि फलाने को आज से चौदह दिन बाद भूल जाना है. बस. अब कोई माई का लाल हमको आज के चौदह दिन बाद याद नहीं दिला पायेगा कि कमबख्त को याद कर के देर रात टेसुआ बहाए थे और भों भों रोये थे कि उसके बिना जिंदगी बेकार है. मगर फिर कोमल मन कहता है...विस्मृति का विलास सबके जीवन में नहीं लिखा होता प्रिये...याद का ताजमहल बनाने वाले की नियति यही होती है कि एक कोठरी से उसे देख कर बाल्टी बाल्टी आंसू बहाया करे. मैं देख रही हूँ कि मैं लिखना कोमल चाहती हूँ मगर मेरे अन्दर जो दो भाषाएँ पनाह पाती हैं उनमें जंग छिड़ी हुयी है. एक उजड्ड मन चाहता है उसे बिहार की जितनी गालियाँ आती हैं, शुद्ध हिंदी में दे कर अपने मन

खाली दिमाग का घंटाघर!

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यूँ ही राह चलते क्या तलाशते रहते हो जब किसी से यूँ ही नज़रें मिल जाती हैं...किसी को तो ढूंढते हो. वो क्या है जो आँखों के सामने रह रह के चमक उठता है. आखिर क्यूँ भीड़ में अनगिन लोगों के होते हुए, किसी एक पर नज़र ठहरती है. वो एक सेकंड के हजारवें हिस्से में किसी की आँखों में क्या नज़र आता है...पहचान, है न? एक बहुत पुरानी पहचान. किसी को देख कर न लगे कि पहली बार देखा हो. जैसे कि इस खाली सड़क पर, खूबसूरत मौसम में अकेले चलते हुए तुम्हें उसे एक पल को देखना था...इतना भर ही रिश्ता था और इतने भर में ही पूरा हो गया. रिश्तों की मियाद कितनी होती है? कितना वक़्त होता है किसी की जिंदगी में पहली प्राथमिकता होने का...आप कभी भी ताउम्र किसी की प्राथमिकता नहीं बन सकते, और चीज़ें आएँगी, और लोग आयेंगे, और शहर मिलेंगे, बिसरेंगे, छूटेंगे...कितना बाँधोगे मुट्ठी में ये अहसास कि तुम्हारे इर्द गिर्द किसी की जिंदगी घूमती है. कुछ लोग आपके होते हैं...क्या होते हैं मालूम नहीं. वो भी आपसे पूछेंगे कि उनका आपसे रिश्ता क्या है तो आप कभी बता नहीं पायेंगे, किसी एक रिश्ते में बाँध नहीं पाएंगे. प्यार कभी कभी ऐसा अमूर्त ह

वो छोटी सी वजह हो मेरे जीने की...

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कुछ जवाबों का हमें ता उम्र इंतज़ार रहता है...खास तौर से उन जवाबों का जिनके सवाल हमने कभी पूछे नहीं, पर सवाल मौजूद जरूर थे...और बड़ी बेचारगी से अपने पूछे जाने की अर्जी लिए घूमते थे...और हम उससे भी ज्यादा बेदर्द होकर उनकी अर्जियों की तरफ़ देखते तक नहीं थे... जिसे नफरत तोड़ नहीं सकती...उपेक्षा तोड़ देती है, नफरत में एक अजीब सा सुकून है, कहीं बहुत गहरे जुड़े होने का अहसास है, नफरत में लगभग प्यार जितना ही अपनापन होता है, बस देखने वाले के नज़रिए का फर्क होता है... कुछ ऐसे जख्म होते हैं जिनका दर्द जिंदगी का हिस्सा बन जाता है...बेहद नुकीला, हर वक्त चुभता हुआ, ये दर्द जीने का अंदाज ही बदल देता है...एक दिन अचानक से ये दर्द ख़त्म हो जाए तो हम शायद सोचेंगे कि हम जो हैं उसमें इस दर्द का कितना बड़ा हिस्सा है...जिन रास्तों पर चल के हम आज किसी भी मोड़ पर रुके हैं, उसमें कितना कुछ इस दर्द के कारण है...इस दर्द के ठहराव के कारण कितने लोग आगे बढ़ गए...हमारी रफ़्तार से साथ बस वो चले जो हमारे अपने थे...इस दर्द में शरीक नहीं...पर उस राह के हमसफ़र जिसे इस दर्द ने हमारे लिए चुना था। मर जाने के लिए एक वजह ह

अनजान दो लोग

सवालों का बरछत्ता

 मैं हवा में गुम होती जा रही हूँ, उसे नहीं दिखता...उसके सामने मेरी आँखों  का रंग फीका पड़ता जाता है, उसे नहीं दिखता...मैं छूटती जा रही हूँ कहीं, उसे नहीं दिखता... --- मैं गुज़रती हूँ हर घड़ी किसी अग्निपरीक्षा से...मेरा मन ही मुझे खाक करता जाता है। यूँ हार मानने की आदत  तो कभी नहीं रही। कैसी थकान है, सब कुछ हार जाने जैसी...कुरुक्षेत्र में कुन्ती के विलाप जैसी...न कह पाने की विवशता...न खुद को बदल पाने का हौसला, जिन्दगी आखिर किस शय का नाम है? कर्ण को मिले शाप जैसी, ऐन वक्त पर भूले हुये ब्रम्हास्त्र जैसी...क्या खो गया है आखिर कि तलाश में इतना भटक रही हूँ...क्या चाहिये आखिर? ये उम्र तो सवाल पूछने की नहीं रही...मेरे पास कुछ तो जवाब होने चाहिये जिन्दगी के...धोखा सा लगता है...जैसे तीर धँसा हो कोई...आखिर  जिये जाने का सबब कुछ तो हो! --- क्या चाहिये होता है खुश रहने के लिये? कौन सा बैंक होता है जहाँ सारी खुशियों का डिपॉजिट होता है? मेरे अकाउंट में कुछ लोग पेन्डिंग पड़े हैं। उनका क्या करूँ समझ नहीं आता ...अरसा पहले उनके बिना जिन्दगी अधूरी थी...अरसा बाद, उनके बिना मैं अधूरी हूँ...किसी खाके

जाने का कोई सही वक्त नहीं होता

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आने का वक्त होता है। होना भी चाहिये। हिरोईन जब उम्मीदों से क्षितिज को देख रही हो...या कि छज्जे से एकदम गिरने वाली हो...या कि म्युजिक डायरेक्टर ने बड़ी मेहनत से आपका इन्ट्रो पीस लिखा है...तमीज कहती है कि आपको ठीक उसी वक्त आना चाहिये म्युजिक फेड इन हो रहा हो...जिन्दगी में कुछ पुण्य किये हों तो हो सकता है आप जब क्लास में एन्ट्री मारें तो गुरुदत्त खुद मौजूद हों और जानलेवा अंदाज में कहें...'जब हम रुकें तो साथ रुके शाम-ए-बेकसी, जब तुम रुको, बहार रुके, चाँदनी भी'...सिग्नेचर ट्यून बजे...और आपको इससे क्या मतलब है कि किसी का दिल टुकड़े टुकड़े हुआ जाता है...आने का वक्त होता है...सही... मगर जाने का कोई सही वक्त नहीं होता। कभी कभी आप दुनिया को बस इक आखिरी प्रेमपत्र लिख कर विदा कह देना चाहते हैं। बस। कोई गुडबाय नहीं। यूं कि आई तो एनीवे आलवेज हेट गुडबाइज...ना ना गुड बौय्ज नहीं कि कहाँ मिलते है वैसे भी...मिलिट्री युनिफौर्म में ड्रेस्ड छोरे कि देख कर दिल डोला डोला जाये और ठहरने की जिद पकड़ ले। भूरी आँखें...हीरो हौंडा करिज्मा...उफ़्फ टाईप्स। बहरहाल...सुबह के छह बजे नींद खुल जाये, आसमान

आखिरी मुलाकात

कुछ गीत ऐसे होते हैं कि सुनकर जैसे दिल में कोई हूक सी उठने लगती रहती है। बरसों पुराने कुछ बिछडे लोग याद आने लगते हैं, कुछ जख्म फ़िर से हरे हो जाते हैं। कुछ ऐसा ही है बाज़ार का ये गाना "देख लो आज हमको जी भर के"। हालात, वक्त और बिछड़ने का अंदाज़ जुदा होने के बावजूद सुनते ही कोई पहचानी गली याद आ जाती है, गीली आँखें याद आती हैं, और एक शहर जैसे जेहन में साँसे लेने लगता है फ़िर से। इश्क होता ही ऐसा है, गुज़र कर भी नहीं गुज़रता, वहीँ खड़ा रहता है। जब कोई ऐसा गीत, कोई ग़ज़ल पढने को मिलती है तो जैसे एक पल में मन वहीँ पहुँच जाता है। जहाँ जाना तो था पर लौट कर आना नहीं था। वो आखिरी कुछ लम्हे जब वक्त को रोक लेने कि ख्वाहिश होती है, किसी को आखिरी लम्हे तक ख़ुद से दूर जाते देखना, अपनी मजबूरियां जानते हुए, ये जानते हुए कि वो हँसते खिलखिलाते पल अब कभी नहीं आयेंगे। वो आखरी मुलाकात...कुछ ऐसी बातें जो कही नहीं जा सकीं, एक खामोशी, एक अचानक से आई हुयी दूरी...और वही कम्बक्त वक्त को रोक लेने कि ख्वाहिश। पूजा 

मैं और तुम

मेरे तुम्हारे बीच उग आया है कंटीला मौन का जंगल जाने कब खो गयीं शब्दों की राहें खिलखिलाहटों की पगडंडियाँ ऊपर नज़र आता है स्याह अँधेरा नहीं दिखता है चाँद नहीं दिखती तारों सी तुम्हारी आँखें काँटों में उलझ जाता है तुम्हारा स्पर्श ग़लतफ़हमी की बेल लिपट जाती है पैरों से और मैं नहीं जा पाती तुम्हारे करीब बहुत तेज़ होता जाता है झींगुरों का शोर मैं नहीं सुन पाती तुम्हारी धड़कन पैरों में लोटते हैं यादों के सर्प काटने को तत्पर शायद मेरी मृत्यु पर ही निकले तुम्हारे गले से एक चीख और तुम पा जाओ शब्द और जीवन

दिल्ली तेरी गलियों का...

ये तारीखें वही रहती हैं साल दर साल वही हम और तुम भी... बदल जाती है तो बस जिंदगी की रफ़्तार... खो जाती है वो फुर्सत वाली शामें और वो अलसाई  सड़कें सर्द रातों में हाथ पकड़ कर घूमना... खो जाते हैं हम और तुम अनजाने शहर में अजनबी लोगों के बीच... रह जाती है बस एक याद वाली पगडण्डी एक आधा बांटा हुआ चाँद और अलाव के इर्द गिर्द गाये हुए गीतों के कतरे... छः मंजिल सीढियों पर रेस लगाना रात के teen बजे पराठे खाना और चिल्लड़ गिन कर झगड़ना कॉफी  खरीदने के बारे में... कोहरे से तुम्हें आते हुए देखना और फ़िर गुम हो जाना उसी कोहरे में हम दोनों का... आज उन्ही तारीखों में मैं हूँ, तुम भी हो...जिंदगी भी है अगर कुछ खो गया है तो बस वो शहर ...जहाँ हमें मुहब्बत हुयी थी दिल्ली, तेरी गलियों का वो इश्क याद आता है...

आइस क्यूब्स

ये झूठ है कि किसी से बिछड़ता है कोई हम बस, मर जाते हैं --------------------------- एयरटेल कहता है हमारी दुनिया में आप कभी अपनों से कभी जुदा नहीं होते ऐसा वादा खुदा क्यूँ नहीं करता कभी? ---------------------- कहीं से आती कोई हवाएं नहीं बता पाती हैं कि तुम्हारे काँधे से कैसी खुशबू आती है? -------------------- किसी भी पहर तुम्हारी आवाज़ नहीं भर सकती है  मुझे अपनी बांहों में!  ------------------------ मैं वाकई नहीं सोचती  लिप बाम लगाते हुए कि तुम्हारे होटों का स्वाद कैसा है! ---------------------------- मुझे कभी मत बताना कितनी आइस क्यूब डालते हो तुम अपनी विस्की में ----------------------------- कच्ची डाली से मत तोड़ा करो मेरी नींदें इनपर ख्वाब का फूल नहीं खिलता फिर ----------------------------- बातों का कैसे ऐतबार कर लूं तुम न कहते हो मुझसे झूठ झूठ  'आई लव यू'. --------------------------- सच कहती हैं सिर्फ उँगलियाँ जो तुम्हारा फ़ोन कॉल पिक करते हुए तुम्हें छूना चाहती हैं...  ----------------------- क

जैसे कोई किनारा देता हो सहारा...

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तुमसे जितना झगड़ती हूँ प्यार उतना ही बढ़ता जाता है... रोती हूँ तो सपने धुल के नये से हो जाते हैं.. कुछ और चमकीले... तुम्हारे साथ हँसती हूँ तो उन सपनों में इन्द्रधनुषी रँग भर जाते हैं... तुम्हें हँसता देखती हूँ तो उनमें जान आ जाती है... हम तीनों मिल कर जी उठते हैं फिर से... तुम.. मैं और हमारे सपने...! तुम्हारी मुस्कुराहट को पेंट करने का दिल करता है कभी कभी... काँच सी पारदर्शी तुम्हारी आँखें... उतना चमकदार रँग बना ही नहीं जो उन्हें कैनवस पे उतार सके... कभी कभी सोचती हूँ तुम्हारी रूह को एक काला टीका लगा दूँ... कहाँ बची हैं अब इतनी पाकीज़ा रूहें धरती पर... कहाँ रह गये हैं इतने साफ़ दिल इंसान... मैं बूढ़ी होना चाहती हूँ तुम्हारे साथ... तुम्हें देखते हुए... तुमसे झगड़ते हुए... तुम्हें प्यार करते हुए.... उम्र के उस पड़ाव पर जब घुटनों में दर्द रहा करेगा... तुम्हारे गले में बाहें डाल मैं थिरकना चाहती हूँ तुम्हारी धड़कनों की सिम्फनी पे... मैं उड़ना चाहती हूँ तुम्हारे साथ तुम्हारा हाथ पकड़ के... तब जब ये दुनिया वाले शायद हमें शक की निगाहों से ना देखें... मैं पूरी दुनिया घूमना चाहती हूँ तुम्हारे साथ... व

उसने लिखा फरेब तो मैंने वफा लिखा

उसने लिखा फरेब तो मैंने वफा लिखा पूरे सफे पे एक नहीं, सौ दफा लिखा मेरे कसूर का पता खुद ही मुझे नहीं उसने ही बार बार कलम से खफा लिखा ... मैंने भी रंज सारा झटके में रख दिया बरसों की मोहब्बत का है ये तोहफा लिखा उसने लिखा नुकसान के रिश्ते का सब सबब रिश्ते के इस हिसाब में मैंने नफा लिखा रखी नहीं कसर कुछ पर वो नहीं माना फिर मैंने भी आखिर में सब कुछ रफा लिखा...

मन नहीं ऊबता ? -- गुलज़ार ]

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[ ये खेल आख़िर किसलिये ? मन नहीं ऊबता ? कई-कई बार तो खेल चुके हैं ये खेल हम अपनी ज़िन्दगी में... खेल खेला है... खेलते रहे हैं... नतीजा फिर वही... एक जैसा... क्या बाक़ी रहता है ? हासिल क्या होता है ? ज़िन्दगी भर एक दूसरे के अँधेरे में गोते खाना ही इश्क़ है ना ? आख़िर किसलिये ? एक कहानी है... सुनाऊँ ? कहानी दो प्रेमियों की... दोनों जवान, ख़ूबसूरत, अक्लमंद...  एक का दूसरे से बेपनाह प्यार...  कसमों में बंधे हुए कि जन्म-जन्मान्तर में  एक दूसरे का साथ निभायेंगे... मगर फिर अलग हो गये...   नौजवान फ़ौज में चला गया...  गया तो लौट कर नहीं आया... लापता हो गया.. लोगों ने कहा मर गया... मगर महबूबा अटल थी...  बोली...   वो लौटेगा ज़रूर...   लौटेगा...  पूरे चालीस सालों तक साधना में रही... वफ़ादारी से इंतज़ार किया... आख़िर एक रोज़ महबूब का संदेसा मिला...   मैं आ गया हूँ, शिवान वाले मंदिर में मिलो ...  कहने लगी,   देखा.. मैंने कहाँ था ना...  दौड़ कर गई... मंदिर पहुंची... पर प्रेमी ना दिखाई दिया... एक आदमी बैठा था...  एकदम बूढ़ा... पोपला मुँह

कौन रह गया शहर में पीछे

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कौन रह गया शहर में पीछे लौटते हुए ये दिल उदास है    कुछ रंग कई बार छिटक जाते हैं अँगुलियों से और फिर दोबारा चढ़ते ही नहीं। जैसे कुछ यादें कभी नहीं आती मुकम्मल याद की तरह। बस लगता रहता है, ऐसी कोई बात तो थी। वैसा ही सुर्ख रंग पहने हुए उतरती आती शाम को देख  रही थी ,कुछ चल रहा था मन में।   बहुत कुछ है जो तुमसे कहने का दिल हो रहा है... क्या ये नहीं मालूम... पर कुछ तो है... कितने ही शब्द लिखे मिटाये सुबह से... कोई भी वो एहसास बयां नहीं कर पा रहा जो मैं कहना चाहती हूँ... गोया सारे अल्फ़ाज़ गूंगे हो गए हैं आज... बेमानी... तुम सुन पा रहे हो क्या वो सब जो मैं कहना चाहती हूँ ? सांझ ढले तुम्हारी आवाज़ कानों में घुलती है तो दिन भर में मन पर उभर आयी सारी ख़राशों पर मलहम सा लग जाता है... मानती हूँ हम बहुत झगड़ने लगे हैं इन दिनों... पर एक आदात जो हम दोनों में एक सी है... बुरे पल हम कभी याद नहीं रखते... तुम्हारी यादों की भीनी गलियों में उन पलों को आने की इजाज़त नहीं है... वहाँ सिर्फ़ तुम्हारी मिठास बसती है... और तुम... मुस्कुराते हुए... गुनगुनाते हुए... बादल बिजली... चन्दन पानी... जैसा अपना

उस लड़की में दो नदियां रहती थीं

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मेरे अन्दर दो बारामासी नदियाँ बहती हैं. दोनों को एक दूसरे से मतलब नहीं...अपनी अपनी रफ़्तार, अपना रास्ता...आँखें इन दोनों पर बाँध बनाये रखती हैं पर हर कुछ दिन में इन दोनों में से किसी एक में बाढ़ आ जाती है और मुझे बहा लेती है. एक नदी है ख़ुशी की...जब इस नदी में बाढ़ आती है तो दुनिया में कुछ भी हो जाए मैं उदास नहीं हो सकती. किसी की तकलीफ, दुःख, परेशानी का हल ढूंढ लेती हूँ. हर वक़्त मुस्कुराती रहती हूँ...कभी कभी तो ऐसा भी हुआ है कि पूरी शाम मुस्कुराने के कारण गालों में दर्द उठ गया हो...मैं उस वक़्त आसमान की ओर आँखें करती हूँ और उस उपरवाले से पूछती हूँ 'व्हाट हैव यु डन टु मी?' मैं शाम से पागलों की तरह खुश हूँ...अगर कोई बड़ा ग़म मेरी तरफ अब तुरंत में फेंका न तो देख लेना...ऐसे मूड में मैं भगवान से मसखरी करती हूँ. चिढ़ाती हूँ...दुनिया को भी बड़ी आसानी से माफ़ कर देती हूँ. लोग मेरा दिल दुखाते हैं तो उन्हें समझने की कोशिश करती हूँ कि शायद उनकी जिंदगी में कुछ बुरा चल रहा हो. ख़ुशी की नदी का पानी साफ़ है और एकदम मीठा है...इसे मैं कभी कभी बोतल में भर कर अपने दोस्तों को भी भेजती रहती

(The Night I felt all alone)

Complicated Relationship is the relatiobship that change the entire meaning of being having a happy realtionship.... Love never end...a universal truth...there is never to late if the mattr is fr love... Here is a hourt touching tale ...inbound emotions and the jist of a upcoming novel (The Night I felt all alone) *COMPLICATED Relationship** *The night I felt all alone** Must read the full post  here http://www.sankz.com/2014/04/complicated-relationship-night-i-felt.html?m=1 **"Love, a word which brings smile, in any of the relationship you are, A single word which entangle in the web series of emotions and trust which is just build by the understanding which the two heart possess"*

प्यार की ये चिट्ठी तुम्हारे नाम

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बहुत कुछ है जो तुमसे कहने का दिल हो रहा है... क्या ये नहीं मालूम... पर कुछ तो है... कितने ही शब्द लिखे मिटाये सुबह से... कोई भी वो एहसास बयां नहीं कर पा रहा जो मैं कहना चाहती हूँ... गोया सारे अल्फ़ाज़ गूंगे हो गए हैं आज... बेमानी... तुम सुन पा रहे हो क्या वो सब जो मैं कहना चाहती हूँ ? ऐसी ही किसी तारीख़ को ऐसे ही किसी प्यारे दिन की याद में ये लिखा था कभी... तुम्हारे लिए... आज भेज ही देती हूँ प्यार की ये चिट्ठी तुम्हारे नाम... *एक दूजे को देख कर जब मुस्कुरायीं थी आँखें पहली बार लम्हें का इक क़तरा थम गया था ! वो ख़ुशनुमा क़तरा आज भी बसा है ज़हन में वो पहली बार जब थामा था तुम्हारा हाथ मेरी उँगलियों ने बींध लिया था तुम्हारी उँगलियों का लम्स भी वो लम्स अब भी महकता है मेरे हाथों में उस आधे चाँद की मद्धम चाँदनी उम्मीद के कच्चे दिए की लौ सी टिमटिमाती हुई आज भी आबाद है दिल के अँधेरे कोने में कहीं सागर की उन बांवरी लहरों ने बाँध के मेरे पैरों को रोका हुआ है वहीं हमारे पैरों के निशां संजो रखे हैं साहिल की गीली रेत ने अब तलक जी करता है ठहरे हुए लम्हों के वो मोती गूँथ के इक डोर में करध

Ye ankho ki boli

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Kitna asaan ho jata jina Jo tum ankho boli samaj paate Na me kuch keh pati Na tum kuch sun paate Bin kahe sab jaan paate Kanpte labo pe na zor padta Kaano me na chubhte kante Jo tum pad lete meri ankhe Na koi sawal hota na javab ki saugate Dil k raz fir raz na rehte jo tum nazar uthate Or pad paate meri ankhe

मुझे/तुम्हें वहीं ठहर जाना था

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कसम से तुम्हारी बहुत याद आती है, जितना तुम समझते हो और जितना मैं तुमसे छिपाती हूँ उससे कहीं ज्यादा. मैं अक्सर तुम्हारे चेहरे की लकीरों को तुम्हारे सफहों से मिला कर देखती हूँ कि तुम मुझसे कितने शब्दों का झूठ बोल रहे हो...तुम्हें अभी तमीज से झूठ बोलना नहीं आया. तुम उदास होते हो तो तुम्हारे शब्द डगर-मगर चलते हैं. तुम जब नशा करते हो तो तुम्हारे लिखने में हिज्जे की गलतियाँ बढ़ जाती हैं...मैं तुम्हारे ख़त खोल कर पढ़ती हूँ तो शाम खिलखिलाने लगती है. वो दिन बहुत अच्छे हुआ करते थे जब ये अजनबीपन की बाड़ हमारे बीच नहीं उगी थी...इसके जंग लगे लोहे के कांटे हमारी बातों के तार नहीं काटा करते थे उन दिनों. ठंढ के मौसम में गर्म कप कॉफ़ी के इर्द गिर्द तुम्हारे किस्से और तुम्हारी दिल खोल कर हंसी गयी हँसी भी हुआ करती थी. लैम्पोस्ट पर लम्बी होती परछाईयाँ शाम के साथ हमारे किस्सों का भी इंतज़ार किया करती थी. तुम्हें भी मालूम होता था कि मेरे आने का वक़्त कौन सा है. किसी को यूँ आदत लगा देना बहुत बुरी बात है, मैं यूँ तो वक़्त की एकदम पाबंद नहीं हूँ पर कुछ लोगों के साथ इत्तिफाक ऐसा रहा कि उन्हें मेरा इंतज़ार र