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Showing posts from August, 2014

मन नहीं ऊबता ? -- गुलज़ार ]

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[ ये खेल आख़िर किसलिये ? मन नहीं ऊबता ? कई-कई बार तो खेल चुके हैं ये खेल हम अपनी ज़िन्दगी में... खेल खेला है... खेलते रहे हैं... नतीजा फिर वही... एक जैसा... क्या बाक़ी रहता है ? हासिल क्या होता है ? ज़िन्दगी भर एक दूसरे के अँधेरे में गोते खाना ही इश्क़ है ना ? आख़िर किसलिये ? एक कहानी है... सुनाऊँ ? कहानी दो प्रेमियों की... दोनों जवान, ख़ूबसूरत, अक्लमंद...  एक का दूसरे से बेपनाह प्यार...  कसमों में बंधे हुए कि जन्म-जन्मान्तर में  एक दूसरे का साथ निभायेंगे... मगर फिर अलग हो गये...   नौजवान फ़ौज में चला गया...  गया तो लौट कर नहीं आया... लापता हो गया.. लोगों ने कहा मर गया... मगर महबूबा अटल थी...  बोली...   वो लौटेगा ज़रूर...   लौटेगा...  पूरे चालीस सालों तक साधना में रही... वफ़ादारी से इंतज़ार किया... आख़िर एक रोज़ महबूब का संदेसा मिला...   मैं आ गया हूँ, शिवान वाले मंदिर में मिलो ...  कहने लगी,   देखा.. मैंने कहाँ था ना...  दौड़ कर गई... मंदिर पहुंची... पर प्रेमी ना दिखाई दिया... एक आदमी बैठा था...  एकदम बूढ़ा... पोपला मुँह

कौन रह गया शहर में पीछे

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कौन रह गया शहर में पीछे लौटते हुए ये दिल उदास है    कुछ रंग कई बार छिटक जाते हैं अँगुलियों से और फिर दोबारा चढ़ते ही नहीं। जैसे कुछ यादें कभी नहीं आती मुकम्मल याद की तरह। बस लगता रहता है, ऐसी कोई बात तो थी। वैसा ही सुर्ख रंग पहने हुए उतरती आती शाम को देख  रही थी ,कुछ चल रहा था मन में।   बहुत कुछ है जो तुमसे कहने का दिल हो रहा है... क्या ये नहीं मालूम... पर कुछ तो है... कितने ही शब्द लिखे मिटाये सुबह से... कोई भी वो एहसास बयां नहीं कर पा रहा जो मैं कहना चाहती हूँ... गोया सारे अल्फ़ाज़ गूंगे हो गए हैं आज... बेमानी... तुम सुन पा रहे हो क्या वो सब जो मैं कहना चाहती हूँ ? सांझ ढले तुम्हारी आवाज़ कानों में घुलती है तो दिन भर में मन पर उभर आयी सारी ख़राशों पर मलहम सा लग जाता है... मानती हूँ हम बहुत झगड़ने लगे हैं इन दिनों... पर एक आदात जो हम दोनों में एक सी है... बुरे पल हम कभी याद नहीं रखते... तुम्हारी यादों की भीनी गलियों में उन पलों को आने की इजाज़त नहीं है... वहाँ सिर्फ़ तुम्हारी मिठास बसती है... और तुम... मुस्कुराते हुए... गुनगुनाते हुए... बादल बिजली... चन्दन पानी... जैसा अपना