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Showing posts from September, 2012

CAT GYAN # 6

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I was browsing through my mail box,came across few mails I use to treasure as a CAT Aspirant.They were posted by Arun (Psycho dementia,if I'm not mistaken?) in the CAT 2k2 group. These mssgs were posted in June. Heck,jus 2 weeks to go,so I'm posting them here. Series of CAT Gyan...6 of them. CAT GYAN #1 When you take CAT, what makes a crucial difference in determining whether you crack CAT and get into the IIM s or not is how quick you can attempt questions. One of the key observations that might throw light on CAT cracking methodologies is that - in most cases students spend about 60% of the time in quant and DI section on calculations. If you can make a difference to your calculation speed, even if it is marginal, it will make a substantial difference to your getting into an IIM. After all people make it to the cut off by a margin of 0.25 marks. We will intersperse our question a day with a fast calculation tip every now and then and about 5 exercise problems for each metho

ढलती हुई शाम

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 शाम 6 बजे थे। मै अपनी छत पे बेठी आकाश को निहार रही थी .............काफी बारिश हुई थी दिन में ...आज का आसमान का नज़ारा कुछ और ही है  ..... बादलों ने आकाश का श्रृंगार कर दिया है .....और बादलों के पीछे ढलते सूरज की लालिमा एक अलग ही नज़ारा पेश कर रही है ..... कभी कभी लगता है  जैसे मेरा मन ........इन बादलों की  है  .....जब तक मन में विचार रूपी जल भरा रहेगा ....तब तक उसकी गति बहुत कम होगी  .......मन भारी होगा , ठीक जल लिए बादलों की तरह , कालिमामयी ..  जब बदल बरस  है, तो वो और भी ज्यादा उज्जवल ,....ख़ूबसूरत ... हुए कपास की भांति प्रतीत होता है ...... उन खाली बादलों की और देखने पे लगता है  जैसे वाही स्वर्ग है ......उनके पीछे जैसे कोई और दुनिया है .. और उसकी दूसरी और उगता हुआ चन्द्रमा ....और बादलों के पीछे डूबता हुआ सूरज  ...एक अनोखा संगम ...संगम अँधेरे और उजाले का ....एक शीतल वातावरण .......ऐसे लुभावने संगम में मन एक पंछी की भांति  उन्मुक्त गगन में उड़ने लगता है ..........ये वक़्त का खेल ही है .....जिस सूरज को देखने से अन्धकार सा छा जाता था वाही सूरज ढलते वक़्त आँखों को   देता है ....व

ये जो दोस्ती होती है न

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ये जो  दोस्ती होती है न ...बिलकुल मासूम बच्चे सी होती है ,,,,सोच रहे होगे के पागल हु यही न ......देखो एक 2 साल के बच्चे को देखना ,तुम्हे सुकून मिलेगा ,...मुझे भी मिलता है जब तुम सब को देखती हु ,,,,नहीं नहीं तुम बच्चे नहीं हो ....तुमसब तुमसबमें  मुझे न दोस्ती देखती है ....कभी देखा है छोटे बच्चे को झगड़ते हुए ,,,,कभी उसको एक टॉफी देखना और चुपलेना ...फिर  लड़ना देखना ..मेने भी देखा है तुम्सब्मे ...कहोगे फिर पगला गयी ...नहीं नहीं।बताती हु न ....... कभी गोर किया है तुमने ,जब में मायूस होती हु ,,,तुम आते हो मेरे पास ......में कह देती हु बस ठीक हु ...कुछ नहीं हुआ ....तुम झुंझला पड़ते हो  कहते हो " पिटके बताएगी या वैसे ही बता देगी , अब नौटंकी मत कर " :) बस वाही , वैसी ही रिस तो बच्चे में होती है , या कहू दोस्ती में होती है उस बच्चे जैसी ......:) पता है क्या तुमको ,,,सोते हुए बाचे की मुस्कुराहट कितनी सुकून देती है , बिलकुल मेरी और तुम्हारी तरह ....:) :) :) ये दोस्ती है न पता है प्यार होती है ....अरे !!! नहीं  नहीं वो नहीं ,जो तुम समाज रहे हो .... कभी छोटे बच्चे को गोद में लेना औ

ये यादे

 ये यादे भी न  बड़ी बातूनी होती है ....तुम हो की कुछ बोलते नहीं और  वो है की कभी चुप रहती नहीं ,एक बार शुरू हो जाती है तो ......ये  यादे  भी न बिलकुल मुझ पर गयी है  ....रात को बीते पहर  ऐसे घेरे बेठी थी मुझे की गर कोई कमरे में आजाता  उस वक़्त वो चाचा ग़ालिब की "छुपाये न बने,और बताये न बने" वाली स्थिति हो जाती .....सबका एक दिन आता है .....किसी दिन तुमको आके घेरेंगी मेरी यादे  :) तब हम भी कही ऐसे ही चिप जायेंगे .... पता है कल रात हमने ढेर  बाते की ...यादो ने और मैंने ......तुम्हारी यादे उन तमाम भूली बिसरी गलियों से होतें हुए जाने कोंसे शहर ले गयी थी :) :) :) जहाँ बस हम थे ....और चारो और पीले रंग के फूल खिले थे ....जैसे सूरज से साड़ी रौशनी चुरा लाये हो ....एक अजीब सी मदहोश कर देने वाली गंध बिखरी थी साड़ी फिजा में ... बड़ी जानी पहचानी सी लगी थी वो महक ,जैसे जन्मो से जानती थी उसे ....बहुत  सोचा तो याद आया , जब  बार   तुम्हे गले लगाया था ना वैसी ही  महक बिखरी थी फिजा में तब भी ........................ जानते हो आज  सुबह सुबह तुम्हे सपने में देखा ....तब से मुस्कुराती हुई घूम रही ह

एक सवेरा

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एक सवेरा जग  होगा ,मुझ में कहीं जो हो चूका है ,न होगा दोबारा के कल तो जा चूका है .... वो मौसम बदल रहा होगा ,मुझमे कहीं ! एक उजली सी चादर दिख रही होगी कुछ स्वर गूंज रहे होंगे ! वो अँधेरा   ढल रहा होगा मुझमे कहीं !!! कुछ उम्मीदे पनप रही होंगी उजाला हो चूका होगा ,मुझमे कहीं सभी तो जग चुके हैं मुझे भी  जागना होगा !!! आज कुछ नया करना होगा के कल में सो न पाऊं के कल ये हो न पाए ... मुझे हसना ही होगा और लड़ना ही होगा ये मेने जान लिया है के जब मै  रो रही होंगी ,अँधेरा हो रहा होगा और उस अँधेरे में फिर मुझे सोना ही होगा कुछ सपने पल रहे होंगे ,मुझमे कही और फिर एक आस मुझको जगाएगी के उठ जा सवेरा हो चूका है एक और दिन कल इतिहास बन जायेगा मुझे जागना ही होगा कुछ करना ही होगा सवेरा हो चूका है अब मुझमे कही 

मौत नहीं आती

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मौत नहीं आती जिस्म  के मिट   जाने  पे मौत तो आती है जब रूह मिट जाती जाती है , नहीं कहते मरना दुनिया से रुखसत हो जाने पे , मरना कहते हैं जब अपनी आस मर जाती है , ज़िन्दगी की उधेड़ बुन में खो जाने पर मर-मर के जीने को नहीं कहते ज़िन्दगी ये तो जंग है हर बात में खुद को पाने की नहीं आती मौत जिस्म के मिट जाने से मौत तो आती है जब जीने की आस मिट जाती है आगे  भडती जिंदगी की रफ़्तार रुक जाती है जिंदगी में रुक्जाने पे मौत जाती है  

ज़िन्दगी

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मै  आज भी , हस्ती हूँ  खिलखिलके , पर उसमे गूंज नहीं होती  मै  आज भी ... चलती हूँ ज़मी पर  पर  कदमो में रफ़्तार नहीं होती  में आज भी  देखती  हु  ख्वाब  इतने ... पर उनमे  अब जान नहीं होती  जानते हो क्यों ??? मै बंट गयी हु  दो वर्गो में  एक  उनके लिए  जो खाते है जीने को  और वो    जीते है खाने को  बहुत सकुचा गयी हु एक आईने के दो  टुकडो  में बंट  हूँ  ज़िन्दगी हु अमीरों की और  गरीबो की!!!

कैसे लिखू कुछ

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क्या लिखू  बताओ ज़रा ,तुम ही कुछ बता दो ,क्या सुनना चाहते हो !!! मै  वाही लिख दूंगी  .............. मेरे पास मेरा कुछ लिखने को है ही कहाँ ......जो कुछ लिख सकूँ !.....कभी कभी दुसरो के लिए भी लिखना चाहिए !..तुम्ही ने तो बताया था ....पर तुम दुसरे हो ही नहीं ,बताओ फिर कैसे कुछ लिखू ??? तुम खुद कहते हो के वो लिखो जो अच्छा लगे ,तुम्हे भी और सबको .....पर क्या तुमने कभी सोचा है के ....मेरा सबकुछ तो तुम ही हो ......तुम भी सोच रहे होगे कितनी उलझी हुई बाते करती हु मै ..है ना !!! :) पर मुझे अच्छा लगता है जब तुम मुस्कुरा के सुनते हो और फिर कहते हो,,,, तुम क्या कह रही हो कुछ समाज नहीं आया। और मै  झुंजला के मुह फेर लेती हु ...और तुम मुझे वाही सब दोहरा के सुना देते हो जो मै  तुम्हे कहती हु .....और मुझे भी मजबूरन बोलना पड़ता है ...तुम क्या बोल रहे हो?कुछ समझ ही नहीं आ रहा !!! फिर दोनों खिलखिला कर हस देते है ..यही तो मुझे अच्छा लगता है ...तुम्हे हसाना  ,और फिर खुद हस  जाना :) कैसे लिखू कुछ  जो कहती हु   तुमसे  जो सुनती हु  वो तुम्हारी  जो मुज्मे है  वो तुझमे है .... तो कैसे   कुछ

मेरी ज़िन्दगी

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ज़िन्दगी रूकती नहीं है .......अगर रुक जाती ,तो में इसे पकड़ के रखती ...तुम्हारे इंतजार  में ...पर क्या करू ,ज़िन्दगी कोई बच्चा थोड़े ही थी ,जो एक टॉफी देके बहल जाती ...और कुछ देर और रूकती  एक और टॉफी के लिए ... कम्बखत! ! ! उसको क्या पता के किसी के लिए रुकना भी किसी को चाहने की निशानी है .....अगर पता होता तो वो भी प्यार करती ....तुमसे ....जैसे में हु तुम्हारी दीवानी। एक बार जो मेरी ज़िन्दगी  देखती तुम्हे  तो दीवानी हो जाती  तुम्हारी  पर वो पीछे मुडके देखती  कहा है  वो तो ज़िन्दगी है  आगे ही तलाशती है  तुमको  नहीं मुझको ... पर  में तो तुमसे ही हु  फिर कैसे  वो मुझे तलाशती होगी   शायद  तुम्हारी  यादो के ढेर  में  खंगालती होगी  के मै  मिल जाऊ उसे  और वो जी ले खुद को  मेरे और तुम्हारे साथ !!!!

मै तुम्ही से तो हु

 तुम जानते हो क्या , तुम मुझसे  हो .... या नहीं हो ..... पता नहीं पर तुम ... हो मेरे और  मै  तुम्हारी मै मान चुकी हु .. तुम  न मानो या मानो  मुझे फरक नहीं पड़ता ... पर डरती हु .. कही तुम ये न मान जाओ और चले जाओ जाओगे ..तो क्या होगा मेरा प्यार का कुछ और इम्तेहान होगा पर न  होना जुदा मुझसे नहीं नहीं खुदसे  क्युकी  मै तुम्ही से तो हु - ओज 

मुस्कान

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    एक छोटी सी मुस्कान  , जो याद रहती  है  उम्र भर , इस तस्वीर में , कैसे भर       देती है जान          कैसे इस तस्वीर की    आत्मा बन जाती है  एक छोटी सी मुस्कान ... ये जान पाना कितना  मुश्किल है , के  बचपन में ,जाने अनजाने  कितने सहज भाव से , सब हस्ते थे ,मुस्काते थे  न जानते थे  क्या है कठोर , हर सफ़र , हर मुश्किल ,लगती थी आसान  कब  कैसे वो क्षण   गुज़र जाते थे    वक़्त गुज़रा ,बहुत कुछ  मिला  पर सब कुछ खो गया  सब  हुए भी ... कुछ नहीं था   खो चुकी थी ,बहुत छोटी सी चीज़  जो थी छोटी सी  मुस्कान  वो खो चुकी है , बचपन खो चूका है  या फिर कैद हो गयी है  तस्वीर में  पर, जब भी देखती हूँ ,तस्वीर को  एक पल के लिए ही सही  आती है मुस्कान  फिर उसी क्षण गूम  हो जाती है  ज़िन्दगी की उधेड़ बुन में  यु ही खोते पाते  कट जाता है सफ़र  पर कुछ कीमती चीजों की  कमी   खलती   है  जैसे   मुस्कान  जो अब मेरी  होते हुए  भी  मेरी नहीं है ............ - ओज              

तेरे जाने के बाद ...

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कभी कभी समज  नहीं पाती क्या लिखू .....जैसे तुम गए हो तो मेरे शब्द भी तुम्हारे साथ चले गए। जब भी अतीत के पन्नो को खोलती हु तो बस तुम दीखते हो ...पता है ..मेरे सहेलिय कहती हैं के मै अब पहली सी नहीं   रही ....उनका मन्ना है के मै बदल चुकी हु .....मुझे यकीं नहीं होता। मै तो  आज भी तुम्हे उस्सी जूनून से चाहती हु ....फिर कैसे यकीं करू उनकी बातो का  ...................... तुम ....मै जानती हूँ ....तुम नहीं जाना      चाहते थे .....पर जाना पड़ा ..अगर न जाते तो मुझे कैसे यकीं होता के मै  तुमसे प्यार करती हु ....जिसे लड़कपना समझे हुए थी वो तो एक सागर निकला ................. तुम्हे प्यार करना मेरे लिए जितना आसान है तुम जानते हो क्या ....नफरत कर पाना उतना ही मुश्किल है ... मेरी सहेलिय कहती है के तुम  धोकेबाज़ हो ....तुम मुझे यु छोड़ कर चले गए ..पता है मै  उन्हें दांत देती हु .........मुझे पता है गलती मेरी ही थी ........ये बात मै  ही नहीं जान  के मुझे  तुमसे प्यार था ......तो तुमसे कहती कहा से ........ अब तरसती है  आँखे  के दीदार हो सके  एक पल  के लिए ही सही  कुछ प्यार हो सके  जब त

रात ........देती है कभी कभी दिल को सुकून

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कभी-कभी मुझे रात का  बड़ी बेसब्री से इंतज़ार रहता है। मुझे लगता है , जैसे  अगला सवेरा मुझे कोई नयी सौगात देगा ........या शायद .......आने वाले सवेरे से मुझे  उम्मीद होती हैं। पर  अपनी    ज़िन्दगी  की रातों से मुझे दर लगता है कभी कभी  ..................क्युकी ज़िन्दगी का अँधेरा ...अक्सर मेरी उन्मीदो को दबा देता है .....या कहूँ  के मुझे उस अँधेरे में कुछ दीखता नहीं है। पर फिर भी अँधेरा भी कभी कभी अपने आप में  होता है ...............अँधेरा , सूरज  की उस तेज़ रौशनी से कई   अच्छा  होता है  ............क्युकी मै अँधेरे को अपनी आँखों से देख सकती हूँ ...........देख सकती हूँ ,उसका  रंग , 'शुन्य ' पर  " उजाला"  मतलब उजाले का श्रोत ...मुझे देखने लायक  नहीं छोड़ता ....सूरज की तेज़ रौशनी मेरी आँखों     की रौशनी से कई गुना तेज़ है। मेरी द्रष्टि गूम हो जाती है  , अगर मैं कुछ पालो  के लिए ही  सही सूरज को एकटक  लगा के देख लूँ ...... उस वक़्त अँधेरे से ज्यादा दर्दनाक आँखों  के सामने छा जाने वाला अँधेरा होता है। जिसमे हम चाहते हुए भी  कुछ देखने योग्य नहीं रहते ........ठीक वैसे ही जी