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Showing posts from January, 2012

mohhabat

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Mausam mohabbat ka, bas itna fasana hai, kagaz ki haweli hai, barish ka zamana hai, kya shart-e-mohabbat, kya shart-e-zamana hai, aawaz bhi zakhmi hai, aur geet bhi gana hai, us paar utarne ki umeed bohot kamm hai, kashti bhi purani hai, tufan ko bhi aana hai, samjhe ya na samjhe wo andaaz mohabbat ke, kisi shaks ko aankho se haal-e-dil sunana hai, bholi si ada fir, ishq ki zidd par hai, fir aag ka dariya hai, aur doob ke jana hai...

------ज़माना बदलते हुए ------

गाँव की कच्ची पगडंडी से , शहर की सड़कों पे चलते हुए , इंसान से ईमान निकलते हुए, मैंने देखा ज़माना बदलते हुए . रूह की भूख से जद्दोजहद ,रोटी को तरसते आलमो की हद , उसूलों को पेट में पिघलते हुए ,मैंने देखा ज़माना बदलते हुए उड़ने को तैयार बुलबुलों की खुशी ,अंधेरों में क़ैद कमसिन ज़िंदगी जल्लादों को कलियां मसलते हुए ,मैंने देखा ज़माना बदलते हुए बिकते हुए दूल्हों की कतार ,शादियों में चलता हुआ व्यापार , बेटियों को गोश्त सा जलते हुए,मैंने देखा ज़माना बदलते हुए. मंदिरों -मस्जिदों के ये खँडहर तमाम ,इंसानों के बजाय हिन्दू -ओ- मुसलमान , पैरों तले इंसानियत कुचलते हुए , मैंने देखा ज़माना बदलते हुए. आदमी से सहमी हुई कायनात ,बेजुबानो पे ज़ुल्मो के ये दिन - रात अपने लालच में सबकुछ निगलते हुए , मैंने देखा ज़माना बदलते हुए. तरक्की की खुशफहमियों में मगरूर ,आदर्शों को करते हुए चूर चूर , आदमी से आदमी के होंठ मिलते हुए , मैंने देखा ज़माना बदलते हुए. गाँव की कच्ची पगडंडी से , शहर की सड़कों पे चलते हुए , इंसान से ईमान निकलते हुए, मैंने देखा ज़माना बदलते हुए .

Kabhi

Kabhi apni hansi par bhi Gussa aata hai, Kabhi saare jahan Ko Jee Chahta hai, Kabhi chupa lete hain gham ko Dil ke kisi kone me, kabhi kisi ko sab kuch sunane ko Jee chahta hai, Kabhi rote nahi Dil toot jaane par bhi, Kabhi yunhi aansu bahane ko jee chahta hai, Kabhi hansi si aa jaati hai bheegi yaadon me, To Kabhi sab kuch bhulaane ko Jee chahta hai, Kabhi acha lagta hai azaad udna, Aur Kabhi kisi ki baahon me simat jaane ko Jee chahta hai, Kabhi sochte hain kuch nya ho iss Zindagi me, Aur Kabhi bas aise hi Hi jiye JAANE Ko JEE Chahta hai...♥♥♥♥♥

चेहरा

मैने देखा चिंता और प्यार, झुर्रियों की तह के पीछे, डबडबाती हुई आँखों में अजीब सी चमक, और चेहरे पे एक खोखली सी हँसी, मैले फटे हाथों की लकीरों को देखती हुई आँखें, जैसे अब भी कुछ होने का इन्तजार है, फिर देखती हुई पल्लू में पड़ी एक गांठ को, जैसे जीवन भर की दस्तान उसमें हो, कुछ यादों की पनाह में, जैसे एक जिंदगी चल रही है, वर्तमान के खांचे में, अतीत की खिड़की खुल रही है, कुछ सोचते हुए आँखे भर आई उसकी, जैसे सिलापट पे बिखरी ओस की कुछ बूंदे हो, डबडबायी आँखों में अब दर्द है, और चेहरे पे एक जानी पहचानी सी मुस्कान ...