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मुझे/तुम्हें वहीं ठहर जाना था

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कसम से तुम्हारी बहुत याद आती है, जितना तुम समझते हो और जितना मैं तुमसे छिपाती हूँ उससे कहीं ज्यादा. मैं अक्सर तुम्हारे चेहरे की लकीरों को तुम्हारे सफहों से मिला कर देखती हूँ कि तुम मुझसे कितने शब्दों का झूठ बोल रहे हो...तुम्हें अभी तमीज से झूठ बोलना नहीं आया. तुम उदास होते हो तो तुम्हारे शब्द डगर-मगर चलते हैं. तुम जब नशा करते हो तो तुम्हारे लिखने में हिज्जे की गलतियाँ बढ़ जाती हैं...मैं तुम्हारे ख़त खोल कर पढ़ती हूँ तो शाम खिलखिलाने लगती है. वो दिन बहुत अच्छे हुआ करते थे जब ये अजनबीपन की बाड़ हमारे बीच नहीं उगी थी...इसके जंग लगे लोहे के कांटे हमारी बातों के तार नहीं काटा करते थे उन दिनों. ठंढ के मौसम में गर्म कप कॉफ़ी के इर्द गिर्द तुम्हारे किस्से और तुम्हारी दिल खोल कर हंसी गयी हँसी भी हुआ करती थी. लैम्पोस्ट पर लम्बी होती परछाईयाँ शाम के साथ हमारे किस्सों का भी इंतज़ार किया करती थी. तुम्हें भी मालूम होता था कि मेरे आने का वक़्त कौन सा है. किसी को यूँ आदत लगा देना बहुत बुरी बात है, मैं यूँ तो वक़्त की एकदम पाबंद नहीं हूँ पर कुछ लोगों के साथ इत्तिफाक ऐसा रहा कि उन्हें मेरा इंतज़ार र