लहू

जिन्होंने उम्र भर तलवार का गीत गया है
उनके शब्द लहू के होते हैं
लहू लोहे का होता है
जो मौत के किनारे जीते हैं
उनकी मौत से जिंदगी का सफर शुरू होता है
जिनका लहू और पसीना मिटटी में गिर जाता है
वे मिट्टी में दब कर उग आते हैं


***
हमारे लहू को आदत है
मौसम नहीं देखता,महफ़िल नहीं देखता
जिंदगी के जश्न शुरू कर लेता है
सूली के गीत छेड़ लेता है


शब्द हैं की पत्थरों पर बह-बहकर घिस जाते हैं
लहू है की तब भी गाता है
ज़रा सोचें की रूठी सर्द रातों को कौन मनाए?
निर्मोही पलों को हथेलियों पर कौन खिलाए?
लहू ही है जो रोज धाराओं के होंठ चूमता है
लहू तारीख की दीवारों को उलांघ आता है
यह जश्न यह गीत किसी को बहुत हैं-
जो कल तक हमारे लहू की खामोश नदी में
तैरने का अभ्यास करते थे.

Comments

  1. ओजस्विनी,लहू को क्रियावाचक बना कर अच्छा परिणाम हांसिल किया है.सुंदर रचना-शुक्रिया-

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  2. प्रवाह और लेखन को पढ़ कर दिलचस्पी दोबारा पढने की हुई .. बहुत ही अच्छा लेखन !

    " ज़रा सोचें की रूठी सर्द रातों को कौन मनाए?
    निर्मोही पलों को हथेलियों पर कौन खिलाए? " सुन्दर अभिव्यक्ती ... :) अनुराग

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  3. bahut achchhi aur sadhi hui rachnaa...... kripaya word varification hata den.....
    anandkrishan, jabalpur
    mobile : 9425800818

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