दिल्ली तेरी गलियों का...

ये तारीखें वही रहती हैं
साल दर साल
वही हम और तुम भी...
बदल जाती है तो बस
जिंदगी की रफ़्तार...
खो जाती है वो फुर्सत वाली शामें
और वो अलसाई  सड़कें
सर्द रातों में हाथ पकड़ कर घूमना...
खो जाते हैं हम और तुम
अनजाने शहर में
अजनबी लोगों के बीच...
रह जाती है बस
एक याद वाली पगडण्डी
एक आधा बांटा हुआ चाँद
और अलाव के इर्द गिर्द
गाये हुए गीतों के कतरे...
छः मंजिल सीढियों पर रेस लगाना
रात के teen बजे पराठे खाना
और चिल्लड़ गिन कर झगड़ना
कॉफी  खरीदने के बारे में...
कोहरे से तुम्हें आते हुए देखना
और फ़िर गुम हो जाना उसी कोहरे में
हम दोनों का...
आज उन्ही तारीखों में
मैं हूँ, तुम भी हो...जिंदगी भी है
अगर कुछ खो गया है तो बस
वो शहर ...जहाँ हमें मुहब्बत हुयी थी
दिल्ली, तेरी गलियों का
वो इश्क याद आता है...


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