कौन रह गया शहर में पीछे

कौन रह गया शहर में पीछे
लौटते हुए ये दिल उदास है
  
कुछ रंग कई बार छिटक जाते हैं अँगुलियों से और फिर दोबारा चढ़ते ही नहीं। जैसे कुछ यादें कभी नहीं आती मुकम्मल याद की तरह। बस लगता रहता है, ऐसी कोई बात तो थी। वैसा ही सुर्ख रंग पहने हुए उतरती आती शाम को देख  रही थी ,कुछ चल रहा था मन में।  
बहुत कुछ है जो तुमसे कहने का दिल हो रहा है... क्या ये नहीं मालूम... पर कुछ तो है... कितने ही शब्द लिखे मिटाये सुबह से... कोई भी वो एहसास बयां नहीं कर पा रहा जो मैं कहना चाहती हूँ... गोया सारे अल्फ़ाज़ गूंगे हो गए हैं आज... बेमानी... तुम सुन पा रहे हो क्या वो सब जो मैं कहना चाहती हूँ ?

सांझ ढले तुम्हारी आवाज़ कानों में घुलती है तो दिन भर में मन पर उभर आयी सारी ख़राशों पर मलहम सा लग जाता है...

मानती हूँ हम बहुत झगड़ने लगे हैं इन दिनों... पर एक आदात जो हम दोनों में एक सी है... बुरे पल हम कभी याद नहीं रखते... तुम्हारी यादों की भीनी गलियों में उन पलों को आने की इजाज़त नहीं है... वहाँ सिर्फ़ तुम्हारी मिठास बसती है... और तुम... मुस्कुराते हुए... गुनगुनाते हुए... बादल बिजली... चन्दन पानी... जैसा अपना प्यार...!
आहिस्ता जाना
दिल की बुनावट पेचीदा है
कुछ ज्यादा,
तुम भी उलझ जाओगे
मुझे रह रहकर उठेगी टीस। 

खाला के घर की गली नहीं, दौड़े आओ दौड़े जाओ। 
Amitié in Sketching by Marie Bouldingue



 

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