कौन रह गया शहर में पीछे
कौन रह गया शहर में पीछे
लौटते हुए ये दिल उदास है
लौटते हुए ये दिल उदास है
बहुत कुछ है जो तुमसे कहने का दिल हो रहा है... क्या ये नहीं मालूम... पर कुछ तो है... कितने ही शब्द लिखे मिटाये सुबह से... कोई भी वो एहसास बयां नहीं कर पा रहा जो मैं कहना चाहती हूँ... गोया सारे अल्फ़ाज़ गूंगे हो गए हैं आज... बेमानी... तुम सुन पा रहे हो क्या वो सब जो मैं कहना चाहती हूँ ?
सांझ ढले तुम्हारी आवाज़ कानों में घुलती है तो दिन भर में मन पर उभर आयी सारी ख़राशों पर मलहम सा लग जाता है...
मानती हूँ हम बहुत झगड़ने लगे हैं इन दिनों... पर एक आदात जो हम दोनों में एक सी है... बुरे पल हम कभी याद नहीं रखते... तुम्हारी यादों की भीनी गलियों में उन पलों को आने की इजाज़त नहीं है... वहाँ सिर्फ़ तुम्हारी मिठास बसती है... और तुम... मुस्कुराते हुए... गुनगुनाते हुए... बादल बिजली... चन्दन पानी... जैसा अपना प्यार...!
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