मन नहीं ऊबता ? -- गुलज़ार ]
[ ये खेल आख़िर किसलिये ? मन नहीं ऊबता ? कई-कई बार तो खेल चुके हैं ये खेल हम अपनी ज़िन्दगी में... खेल खेला है... खेलते रहे हैं... नतीजा फिर वही... एक जैसा... क्या बाक़ी रहता है ? हासिल क्या होता है ? ज़िन्दगी भर एक दूसरे के अँधेरे में गोते खाना ही इश्क़ है ना ? आख़िर किसलिये ?
एक कहानी है... सुनाऊँ ?
कहानी दो प्रेमियों की...
दोनों जवान, ख़ूबसूरत, अक्लमंद...
एक का दूसरे से बेपनाह प्यार...
कसमों में बंधे हुए कि जन्म-जन्मान्तर में
एक दूसरे का साथ निभायेंगे...
मगर फिर अलग हो गये...
नौजवान फ़ौज में चला गया...
गया तो लौट कर नहीं आया...
लापता हो गया..
लोगों ने कहा मर गया...
मगर महबूबा अटल थी...
बोली...
वो लौटेगा ज़रूर...
लौटेगा...
पूरे चालीस सालों तक साधना में रही...
वफ़ादारी से इंतज़ार किया...
आख़िर एक रोज़ महबूब का संदेसा मिला...
मैं आ गया हूँ, शिवान वाले मंदिर में मिलो...
कहने लगी,
देखा..
मैंने कहाँ था ना...
दौड़ कर गई...
मंदिर पहुंची...
पर प्रेमी ना दिखाई दिया...
एक आदमी बैठा था...
एकदम बूढ़ा...
पोपला मुँह..
टांट गंजी...
आँखों में मैल...
बोली..
यहाँ तो कोई नहीं...
ज़रूर किसी ने शरारत की है...
मायूस हो कर घर लौटी...
वहाँ मंदिर में इंतज़ार करते करते वो भी थक गया...
कोई नहीं आया...
चिड़िया का बच्चा तक नहीं..
हाँ, एक बुढ़िया आयी थी...
कमर से झुकी हुई..
बाल उलझे हुए..
आँख में मोतिया-बिंध...
मंदिर में झाँक कर देखा...
कुछ बुड़बुड़ाई...
और अपने ही साथ बात करते हुए दूर चली गई...
निराश हो गया बेचारा...
बोला...
उसने इंतज़ार नहीं किया...
गृहस्ती रचाकर मुझे भूल गई...
संदेसा भेजा था,
फिर भी मिलने तक नहीं आयी...
किसलिये ? ...
आख़िर किसलिये ये खेल ? ...
मन नहीं ऊबता ?
Comments
Post a Comment