मुझे/तुम्हें वहीं ठहर जाना था

कसम से तुम्हारी बहुत याद आती है, जितना तुम समझते हो और जितना मैं तुमसे छिपाती हूँ उससे कहीं ज्यादा. मैं अक्सर तुम्हारे चेहरे की लकीरों को तुम्हारे सफहों से मिला कर देखती हूँ कि तुम मुझसे कितने शब्दों का झूठ बोल रहे हो...तुम्हें अभी तमीज से झूठ बोलना नहीं आया. तुम उदास होते हो तो तुम्हारे शब्द डगर-मगर चलते हैं. तुम जब नशा करते हो तो तुम्हारे लिखने में हिज्जे की गलतियाँ बढ़ जाती हैं...मैं तुम्हारे ख़त खोल कर पढ़ती हूँ तो शाम खिलखिलाने लगती है.

वो दिन बहुत अच्छे हुआ करते थे जब ये अजनबीपन की बाड़ हमारे बीच नहीं उगी थी...इसके जंग लगे लोहे के कांटे हमारी बातों के तार नहीं काटा करते थे उन दिनों. ठंढ के मौसम में गर्म कप कॉफ़ी के इर्द गिर्द तुम्हारे किस्से और तुम्हारी दिल खोल कर हंसी गयी हँसी भी हुआ करती थी. लैम्पोस्ट पर लम्बी होती परछाईयाँ शाम के साथ हमारे किस्सों का भी इंतज़ार किया करती थी. तुम्हें भी मालूम होता था कि मेरे आने का वक़्त कौन सा है. किसी को यूँ आदत लगा देना बहुत बुरी बात है, मैं यूँ तो वक़्त की एकदम पाबंद नहीं हूँ पर कुछ लोगों के साथ इत्तिफाक ऐसा रहा कि उन्हें मेरा इंतज़ार रहने लगा एक ख़ास वक़्त पर. मुझे बेहद अफ़सोस है कि मैंने घड़ी की बेजान सुइयों के साथ तुम्हारी मुस्कराहट का रिश्ता बाँध दिया और मोबाईल की घंटी का अलार्म.

वक़्त के साथ परेशानी ये है कि ये हर शाम वहीं ठहर जाता है...मैं घड़ी को इग्नोर करने की पुरजोर कोशिश करती हूँ पर यकीन मानो मेरे दोस्त(?) मुझे भी उस वक़्त तुम्हारी याद आती है. कभी कभी छटपटा जाती हूँ पूछने के लिए...कि तुम ठीक तो हो...तुम्हारा कहना सही है, तुम्हारी फ़िक्र बहुत लोगों को होती है...इसी बात से इस बात की भी तसल्ली कर लेती हूँ कि जो लोग तुम्हारा हाल पूछते होंगे वो वाकई तुम्हारा ध्यान रखेंगे, मेरी तरह दूर देश में बैठ कर ताना शाही नहीं चलाएंगे. मुझे माफ़ कर दो कि मैंने बहुत सी शर्तें लगायीं...बहुत से बंधन बांधे... तुम कहीं बहुत दूर आसमानों के देश के हो, मुझे जमीनी मिटटी वाली से क्या बातें करोगे. मैं खामखा तुम्हें किसी कारवां की खूबसूरत बंजारन से शादी कर लेने को विवश कर दूँगी कि इसी बहाने तुम कहीं आस पास रहोगे.

तुम आसमानों के लिए बने हो मेरे दोस्त...अच्छा हुआ जो हमारी दोस्ती टूट गयी. इसमें ऐसा कुछ भी नहीं था जिसके लिए दो लम्हा भी रुका जाए...कई बार तो मुझे अफ़सोस होता है तुम्हारा वक़्त जाया करने के लिए. तुम्हारी जिंदगी में बेहतर लोग आ सकते थे...बेहतर किताबें हो सकती थीं, बेहतर रचनायें लिखी जा सकती थीं. तुम उस वक़्त का जाहिर तौर से कोई बेहतर इस्तेमाल कर सकते थे...तुम्हारे दोस्त कुछ बेहतर लोग होने चाहिए...मैं नहीं...मैं बिलकुल नहीं. तुम कोई डिफेक्टिव पीस नहीं हो कि जिसे सुधारा जाए...मैं तुम्हें बदलते बदलते तोड़ दूँगी, मैं अजीब विध्वंसक प्रवृत्ति की हूँ.

तुम्हें पता है लोग कब कहते हैं की 'मुझसे दूर रहो'?
जब उन्हें खुद पर विश्वास नहीं होता...जब वो इतने कमजोर पड़ चुके होते हैं कि खुद तुमसे दूर नहीं जा सकते...तब वे चाहते हैं कि तुम उनसे दूर चले जाओ.

आज बशीर बद्र का एक शेर याद आया तुम्हारी याद के साथ...
मैं कब कहता हूँ वो अच्छा बहुत है
मगर उसने मुझे चाहा बहुत है 

मैं तुम्हारे बिना जीना सीख रही हूँ, थोड़ी मुश्किल है...पर जानते हो न, बहुत जिद्दी हूँ...ये भी कर लूंगी. 

हाँ, एक बात भूल गयी...

तुम मुझसे दूर ही रहो!




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