उस लड़की में दो नदियां रहती थीं

मेरे अन्दर दो बारामासी नदियाँ बहती हैं. दोनों को एक दूसरे से मतलब नहीं...अपनी अपनी रफ़्तार, अपना रास्ता...आँखें इन दोनों पर बाँध बनाये रखती हैं पर हर कुछ दिन में इन दोनों में से किसी एक में बाढ़ आ जाती है और मुझे बहा लेती है.

एक नदी है ख़ुशी की...जब इस नदी में बाढ़ आती है तो दुनिया में कुछ भी हो जाए मैं उदास नहीं हो सकती. किसी की तकलीफ, दुःख, परेशानी का हल ढूंढ लेती हूँ. हर वक़्त मुस्कुराती रहती हूँ...कभी कभी तो ऐसा भी हुआ है कि पूरी शाम मुस्कुराने के कारण गालों में दर्द उठ गया हो...मैं उस वक़्त आसमान की ओर आँखें करती हूँ और उस उपरवाले से पूछती हूँ 'व्हाट हैव यु डन टु मी?' मैं शाम से पागलों की तरह खुश हूँ...अगर कोई बड़ा ग़म मेरी तरफ अब तुरंत में फेंका न तो देख लेना...ऐसे मूड में मैं भगवान से मसखरी करती हूँ. चिढ़ाती हूँ...दुनिया को भी बड़ी आसानी से माफ़ कर देती हूँ. लोग मेरा दिल दुखाते हैं तो उन्हें समझने की कोशिश करती हूँ कि शायद उनकी जिंदगी में कुछ बुरा चल रहा हो.


ख़ुशी की नदी का पानी साफ़ है और एकदम मीठा है...इसे मैं कभी कभी बोतल में भर कर अपने दोस्तों को भी भेजती रहती हूँ...या जो खास दोस्त हैं, एकदम खास, उनकी व्हिस्की के पैग के लिए खास इस पानी से बने आइस क्यूब्स डाल देती हूँ...ये मेरे दोस्त भी मेरी तरह ऑन द रॉक्स पीते हैं. ये खुशियों की नदी दिल के एक अतल कुएं से निकलती है...जिसका पानी कभी सूखता नहीं...जिसकी गहराई का कोई अंदाजा नहीं. इस नदी पर रोज धूप खिलती है और पूरा पानी सुनहला हो जाता है...सूरज की गर्मी से मेरी बैटरी भी चार्ज हो जाती है. मैं अक्सर इस नदी में अपनी यादों की नाव तैराती रहती हूँ. इसी नदी में मैं चिट्ठियां भी लिखती हूँ...पते के साथ, बिना टिकट लगे, बैरंग...कि अपने खास लोगों तक चिठ्ठियाँ पहुँच जाएँ.

मेरे अधिकतर दोस्तों ने इसी नदी को देखा है...और उन्हें लगता है कि मैं यही  नदी हूँ...बस यही नदी. कलकल, खिलखिलाती...हमेशा उन्हें हंसाती...आँखों में मनों शरारत...ऐसी नदी जिसमें डूबकर लोग अपने सारे कष्ट भूल जायें. ऐसी नदी जिसका गीत मुस्कुराने पर विवश कर दे...जो हमेशा आपके अन्दर का सबसे उजला कोना ढूंढ कर आपको दिखा दे...कभी भी, किसी भी समय ये नदी चाहने भर से उनकी अंजुली में भर आती है.

एक और नदी है...अवसाद की, दुःख की, तन्हाई की, ख़ामोशी की...देर रात बेआवाज़ चीखों की...ऐसी नदी जिसका पानी सदियों ठहरा ठहरा सड़ गया है, जिसमें दलदल हो गयी है. गहरी काली नदी...जिसका पानी न केवल खारा है, बल्कि अम्लीय और जहरीला भी है. इस नदी में डूब कर कभी कुछ बाहर नहीं निकलता...ये नदी बाँध तोड़ कर नहीं बहती, दरके हुए दिल की दरारों से रिस रिस कर भर आती है पूरे शरीर में और मुझे अन्दर से खोखला करती रहती है.

ये नदी पाताल के किसी अतल कुएं से बहती है...इस कुएं में भूल से भी मत झांकना...इसमें भटकती हुयी रूहें बंद हैं...उनकी यातना से भरी आँखें देख लोगे तो जिंदगी भर का करार खो जाएगा. इस नदी को मैं जितना भर संभव होता है खुद में समेटने की कोशिश करती हूँ. सब से कह के रखती हूँ, उधर खतरा है...बोर्ड भी लगा रखा है. ये नदी जिस दिन बाँध तोड़ कर बहती है मेरा पूरा घर, छत और आसमान मुझपर टूट के गिरता है...गर्म, पिघला कोलतार जैसी ही गंध भी है इसकी कि सांस भी लो तो अन्दर तक जब जलता जाए.

इस नदी के ऊपर सूरज निकलता भी है तो एक भी किरण लौटाती नहीं है ये...सब कुछ पी जाती है...सब कुछ गला जाती है. इसकी सतह बड़ी भयावह है...ये नदी मौत की परछाई जैसी लगती है जिसमें से लौट कर कुछ नहीं आता...कभी भी. इस नदी में भी कुछ चिट्ठियां डालती हूँ मैं...जब कोई मेरा दिल कुछ यूँ दुखा दे कि जीने में दर्द होने लगे तो मैं उसके नाम एक चिट्ठी लिख कर इस नदी में डाल देती हूँ. जानती हूँ कि वो चिट्ठी कभी किसी तक नहीं पहुंचेगी. इस नदी से मैंने बहुत कम लोगों को मिलवाया है...इस नदी में उफान आते ही मैं बंद कमरा हो जाती हूँ.

कभी हुआ है कि मैंने तुमसे कहा हो, प्लीज एक मिनट मुझसे बात कर लो...या फिर तुम्हारी आवाज़ सुनने का मन कर रहा था...ऐसे समय मैं इस नदी की दलदल में बहुत गहरे धंसी हुयी होती हूँ. मुझे कोई सहारा चाहिए होता है उससे निकलने का...पर अवसाद और उदासी की ये नदी इतनी संक्रामक है कि मैं किसी से बात करने में डरती हूँ. वैसे में अगर तुम न भी बात करो तो मैं कभी नहीं कहूँगी कि मैं मर रही हूँ...दो मिनट ठहर जाओ. मैं खामोश हो जाउंगी और उँगलियों से रिसते खून से तुम्हें चिठ्ठियाँ लिखूंगी और इस नदी में ही डाल दूँगी. ये वो चिट्ठियां हैं जिनपर पता तो होता है, टिकट भी लगा होता है पर जो लाल डिब्बा होता है न वो ये चिट्ठियां खा जाता है...डाकिया इन चिट्ठियों से जाड़ों की रात अलाव जला लेता है. तुम ये चिट्ठियां न मिलने पर उदास मत होना. मैं कभी ये सोच के लिखती ही नहीं कि तुम तक पहुंचे.

ऐसे समय में मुझे कोई मिलता है तो मैं रास्ता बदल लेती हूँ...फ़ोन आता है तो बहाना बना देती हूँ...कि जिस वक़्त मुझे सबसे ज्यादा किसी की जरूरत होती है मैं एकदम खुद को अकेला कर लेती हूँ. मैं तुमसे कभी भी जरूरत के लिए कुछ नहीं मांगूंगी. जब इस नदी में बाढ़ आती है तो मैं बहुत तेज़ और बेहद खतरनाक तरीके से बाईक चलाती हूँ...मैं चाहती हूँ कि मुझे कुछ हो जाए. ऐसे में मैं वाकई मर जाना चाहती हूँ. ऐसे समय मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता, न संगीत, न फिल्में, न प्यार, न दोस्ती...जिंदगी एक बेहद लम्बी और तकलीफदेह यात्रा लगती है.

मुझे कभी समझ नहीं आता कि ये दोनों नदियाँ एक साथ कैसे बहती हैं मेरे अन्दर...मैंने खुद जैसा किसी को नहीं देखा...कभी कभी मैं खुद चकित होती हूँ. पोसिटिव और नेगटिव दोनों फोर्सेस...लगता है किसी दिन आपस में टकरा गए तो विस्फोट हो जाएगा. दोनों में से कोई भी बीच का रास्ता नहीं खोजतीं. दोनों नदियाँ बहुत पोजेसिव हैं...अपना अपना हिस्सा मांगती हैं. अलग अलग.

कहते हैं न...खुद को जानने के बाद आप खुद को जैसे हैं वैसे ही स्वीकार कर लेते हैं. तो मैं भी जानती हूँ कि मैं ऐसी हूँ...और जब भी दोनों में से किसी नदी में बाढ़ आता है...मैं खुद को शांत रखने की कोशिश करती हूँ और रटती रहती हूँ ' ये गुज़र जाएगा, थोड़ा धीरज रखो'. This too shall pass.

बहुत बहुत दिनों से ये दोनों नदियाँ मेरे अन्दर रहती हैं, मेरे अन्दर बहती हैं.
मैं इनसे हूँ, मैं इन सी हूँ. बस. इतनी हूँ.



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